Tuesday, 14 March 2017

Samrat Chandragupta Maurya Life History in Hindi ( चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवन कहानी ) A HISTORY RESEARCH BY JS



           चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवन कहानी 

           Samrat Chandragupta Maurya Life History in Hindi


                                                              A HISTORY RESEARCH BY JS
                                


चन्द्रगुप्त मौर्य

बिरला मंदिरदिल्ली में एक शैल-चित्र
राजभक्ति:
पद:
उत्तराधिकारी
राज
जन्म स्थान:
                                      










चन्द्रगुप्त मौर्य


चन्द्रगुप्त मौर्य (जन्म ३४० पु॰ई॰, राज ३२२-२९८ पु॰ई॰) में भारत के सम्राट थे। इनको कभी कभी चन्द्रगुप्त नाम से भी संबोधित किया जाता है। इन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। चन्द्रगुप्त पूरे भारत को एक साम्राज्य के अधीन लाने में सफ़ल रहे। भारत राष्ट्र निमार्ण मोरिय गणराज्य ( चन्द्रगुप्त मौर्य )
सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की तिथि साधारणतया ३२२ ई.पू. निर्धारित की जाती है। उन्होंने लगभग 24 वर्ष तक शासन किया और इस प्रकार उनके शासन का अंत प्राय: २९८ ई.पू. में हुआ।
चंद्रगुप्त मौर्य के वंशादि के बारे में अधिक ज्ञात नहीं है। हिंदू साहित्य पंरपरा उसके नंदों से संबद्ध, बताती है। जैन परिसिष्टपर्वन्‌ के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य मयूरपोषकों के एक ग्राम के मुखिया की पुत्री से उत्पन्न थे। मध्यकालीन अभिलेखों के साक्ष्यानुसार मौर्य सूर्यवंशी मांधाता से उत्पन्न थे। बौद्ध साहित्य में मौर्य क्षत्रिय कहे गए हैं। महावंश चंद्रगुप्त कोमोरिय (मौर्य) खत्तियों से पैदा हुआ बताता है। दिव्यावदान में बिंदुसार स्वयं की मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय कहते हैं। सम्राट अशोक भी स्वयं को क्षत्रिय बताते हैं। महापरिनिब्बान सुत्त से 5 वी शताब्दी ई 0 पू 0 उत्तर भारत आठ छोटे छोटे गाणराज्यों में बटा था। मोरिय पिप्पलिवन के शासक, गणतांत्रिक व्यवस्थावाली जाति सिद्ध होते हैं। पिप्पलिवन ई.पू. छठी शताब्दी में नेपाल की तराई में स्थित रुम्मिनदेई से लेकर आधुनिक देवरिया जिले के कसया प्रदेश तक को कहते थे। मगध साम्राज्य की प्रसारनीति के कारण इनकी स्वतंत्र स्थिति शीघ्र ही समाप्त हो गई। यहीं कारण था कि चंद्रगुप्त का मयूरपोषकों, चरवाहों तथा लुब्धकों के संपर्क में पालन हुआ। परंपरा के अनुसार वह बचपन में अत्यंत तीक्ष्णबुद्धि था, एवं समवयस्क बालकों का सम्राट् बनकर उनपर शासन करता था। ऐसे ही किसी अवसर पर चाणक्य की दृष्टि उसपर पड़ी, फलत: चंद्रगुप्त तक्षशिला गए जहाँ उन्हें राजोचित शिक्षा दी गई। ग्रीक इतिहासकार जस्टिन के अनुसार सांद्रोकात्तस (चंद्रगुप्त) साधारणजन्मा था।
सिकंदर के आक्रमण के समय लगभग समस्त उत्तर भारत धनानंद द्वारा शासित था। नंद सम्राट् अपनी निम्न उत्पत्ति एवं निरंकुशता के कारण जनता में अप्रिय थे। ब्राह्मण चाणक्य तथा चंद्रगुप्त ने राज्य में व्याप्त असंतोष का सहारा ले नंद वंश को उच्छिन्न करने का निश्चय किया अपनी उद्देश्यसिद्धि के निमित्त चाणक्य और चंद्रगुप्त ने एक विशाल विजयवाहिनी का प्रबंध किया ब्राह्मण ग्रंथों में नंदोन्मूलन का श्रेय चाणक्य को दिया गया है। जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त डाकू था और छोटे-बड़े सफल हमलों के पश्चात्‌ उसने साम्राज्यनिर्माण का निश्चय किया। अर्थशास्त्र में कहा है कि सैनिकों की भरती चोरों, म्लेच्छों, आटविकों तथा शस्त्रोपजीवी श्रेणियों से करनी चाहिए। मुद्राराक्षस से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त ने हिमालय प्रदेश के राजा पर्वतक से संधि की। चंद्रगुप्त की सेना में शक, यवन, किरात, कंबोज, पारसीक तथा वह्लीक भी रहे होंगे। प्लूटार्क के अनुसार सांद्रोकोत्तस ने संपूर्ण भारत को 6,00,000 सैनिकों की विशाल वाहिनी द्वारा जीतकर अपने अधीन कर लिया। जस्टिन के मत से भारत चंद्रगुप्त के अधिकार में था।
चंद्रगुप्त ने सर्वप्रथम अपनी स्थिति पंजाब में सदृढ़ की। उसका यवनों विरुद्ध स्वातंत्रय युद्ध संभवत: सिकंदर की मृत्यु के कुछ ही समय बाद आरंभ हो गया था। जस्टिन के अनुसार सिकंदर की मृत्यु के उपरांत भारत ने सांद्रोकोत्तस के नेतृत्व में दासता के बंधन को तोड़ फेंका तथा यवन राज्यपालों को मार डाला। चंद्रगुप्त ने यवनों के विरुद्ध अभियन लगभग 323 ई.पू. में आरंभ किया होगा, किंतु उन्हें इस अभियान में पूर्ण सफलता 317 ई.पू. या उसके बाद मिली होगी, क्योंकि इसी वर्ष पश्चिम पंजाब के शासक क्षत्रप यूदेमस (Eudemus) ने अपनी सेनाओं सहित, भारत छोड़ा। चंद्रगुप्त के यवनयुद्ध के बारे में विस्तारपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। इस सफलता से उन्हें पंजाब और सिंध के प्रांत मिल गए।
चंद्रगुप्त मौर्य का संभवत: महत्वपूर्ण युद्ध नंदों के साथ उपरिलिखित संघर्ष के बाद हुआ। जस्टिन एवं प्लूटार्क के वृत्तों में स्पष्ट है कि सिकंदर के भारत अभियन के समय चंद्रगुप्त ने उसे नंदों के विरुद्ध युद्ध के लिये भड़काया था, किंतु किशोर चंद्रगुप्त के घृष्ट व्यवहार ने यवनविजेता को क्रुद्ध कर दिया। फलत:, प्राणरक्षा के निमित्त चंद्रगुप्त को वहाँ से भागना पड़ा। भारतीय साहित्यिक परंपराओं से लगता है कि चंद्रगुप्त और चाणक्य के प्रति भी नंदराजा अत्यंत असहिष्णु रह चुके थे। महावंश टीका के एक उल्लेख से लगता है कि चंद्रगुप्त ने आरंभ में नंदसाम्राज्य के मध्य भाग पर आक्रमण किया, किंतु उन्हें शीघ्र ही अपनी त्रुटि का पता चल गया और नए आक्रमण सीमांत प्रदेशों से आरंभ हुए। अंतत: उन्होंने पाटलिपुत्र घेर लिय और धननंद को मार डाला।
इसके बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि चंद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में भी किया। मामुलनार नामक प्राचीन तमिल लेखक ने तिनेवेल्लि जिले की पोदियिल पहाड़ियों तक हुए मौर्य आक्रमणों का उल्लेख किया है। इसकी पुष्टि अन्य प्राचीन तमिल लेखकों एवं ग्रंथों से होती है। आक्रामक सेना में युद्धप्रिय कोशर लोग सम्मिलित थे। आक्रामक कोंकण से एलिलमलै पहाड़ियों से होते हुए कोंगु (कोयंबटूर) जिले में आए और यहाँ से पोदियिल पहाड़ियों तक पहुँचे। दुर्भाग्यवश उपर्युक्त उल्लेखों में इस मौर्यवाहिनी के नायक का नाम प्राप्त नहीं होता। किंतु, 'वंब मोरियर' से प्रथम मौर्य सम्राट् चंद्रगुप्त का ही अनुमान अधिक संगत लगता है।
मैसूर से उपलब्ध कुछ अभिलेखों से चंद्रगुप्त द्वारा शिकारपुर तालुक के अंतर्गत नागरखंड की रक्षा करने का उल्लेख मिलता है। उक्त अभिलेख 14वीं शताब्दी का है किंतु ग्रीक, तमिल लेखकों आदि के सक्ष्य के आधार पर इसकी ऐतिहासिकता एकदम अस्वीकृत नहीं की जा सकती।
चंद्रगुप्त ने सौराष्ट्र की विजय भी की थी। महाक्षत्रप रुद्रदामन्‌ के जूनागढ़ अभिलेख से प्रमाणित है कि चंद्रगुप्त के राष्ट्रीय, वैश्य पुष्यगुप्त यहाँ के राज्यपाल थे।
चद्रंगुप्त का अंतिम युद्ध सिकंदर के पूर्वसेनापति तथा उनके समकालीन सीरिया के ग्रीक सम्राट् सेल्यूकस के साथ हुआ। ग्रीक इतिहासकार जस्टिन के उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि सिकंदर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस को उसके स्वामी के सुविस्तृत साम्राज्य का पूर्वी भाग उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ। सेल्यूकस, सिकंदर की भारतीय विजय पूरी करने के लिये आगे बढ़ा, किंतु भारत की राजनीतिक स्थिति अब तक परिवर्तित हो चुकी थी। लगभग सारा क्षेत्र एक शक्तिशाली शासक के नेतृत्व में था। सेल्यूकस 305 ई.पू. के लगभग सिंधु के किनारे आ उपस्थित हुआ। ग्रीक लेखक इस युद्ध का ब्योरेवार वर्णन नहीं करते। किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि चंद्रगुप्त की शक्ति के संमुख सेल्यूकस को झुकना पड़ा। फलत: सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त को विवाह में एक यवनकुमारी तथा एरिया (हिरात), एराकोसिया (कंदहार), परोपनिसदाइ (काबुल) और गेद्रोसिय (बलूचिस्तान) के प्रांत देकर संधि क्रय की। इसके बदले चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किए। उपरिलिखित प्रांतों का चंद्रगुप्त मौर्य एवं उसके उततराधिकारियों के शासनांतर्गत होना, कंदहार से प्राप्त अशोक के द्विभाषी लेख से सिद्ध हो गया है। इस प्रकार स्थापित हुए मैत्री संबंध को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से सेल्यूकस न मेगस्थनीज नाम का एक दूत चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा। यह वृत्तांत इस बात का प्रमाण है कि चंद्रगुप्त का प्राय: संपूर्ण राजयकाल युद्धों द्वारा साम्राज्यविस्तार करने में बीता होगा।

अंतिम श्रुतकेवाली भद्रबाहु स्वामी और सम्राट चंद्रगुप्त का आगमन दर्शाता शिलालेख (श्रवणबेलगोला)
श्रवणबेलगोला से मिले शिलालेखों के अनुसार, चंद्रगुप्त अपने अंतिम दिनों में जैन-मुनि हो गए| चन्द्र-गुप्त अंतिम मुकुट-धारी मुनि हुए, उनके बाद और कोई मुकुट-धारी (शासक) दिगंबर-मुनि नही हुए | अतः चन्द्र-गुप्त का जैन धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है। स्वामी भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोल चले गए। वहीं उन्होंने उपवास द्वारा शरीर त्याग किया। श्रवणबेलगोल में जिस पहाड़ी पर वे रहते थे, उसका नाम चंद्रगिरि है और वहीं उनका बनवाया हुआ 'चंद्रगुप्तबस्ति' नामक मंदिर भी है।
अनुक्रम
  [छुपाएँ] 
साम्राज्य[संपादित करें]

चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य
चंद्रगुप्त का साम्राज्य अत्यंत विस्तृत था। इसमें लगभग संपूर्ण उत्तरी और पूर्वी भारत के साथ साथ उत्तर में बलूचिस्तान, दक्षिण में मैसूर तथा दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र तक का विस्तृत भूप्रदेश सम्मिलित था। इनका साम्राज्य विस्तार उत्तर में हिंद्कुश तक दक्षिणमें कर्नाटकतक पूर्व में बंगाल तथा पश्चिम में सौराष्ट्र तक था साम्राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी सम्राट् स्वयं था। शासन की सुविधा की दृष्टि से संपूर्ण साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों में विभाजित कर दिया गया था। प्रांतों के शासक सम्राट् के प्रति उत्तरदायी होते थे। राज्यपालों की सहायता के लिये एक मंत्रिपरिषद् हुआ करती थी। केंद्रीय तथा प्रांतीय शासन के विभिन्न विभाग थे और सबके सब एक अध्यक्ष के निरीक्षण में कार्य करते थे। साम्राज्य के दूरस्थ प्रदेश सड़कों एवं राजमार्गों द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए थे।
पाटिलपुत्र (आधुनिक पटना) चंद्रगुप्त की राजधानी थी जिसके विषय में यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ ने विस्तृत विवरण दिए हैं। नगर के प्रशासनिक वृत्तांतों से हमें उस युग के सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को समझने में अच्छी सहायता मिलती है।
मौर्य शासन प्रबंध की प्रशंसा आधुनिक राजनीतिज्ञों ने भी की है जिसका आधार 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' एवं उसमें स्थापित की गई राज्य विषयक मान्यताएँ हैं। चंद्रगुप्त के समय में शासनव्यवस्था के सूत्र अत्यंत सुदृढ़ थे।
शासनव्यवस्था[संपादित करें]
चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य की शासनव्यवस्था का ज्ञान प्रधान रूप से मेगस्थनीज़ के वर्णन के अवशिष्ट अंशों और कौटिल्य के अर्थशास्त्र से होता है (दे. मेगस्थनीज़)। अर्थशास्त्र में यद्यपि कुछ परिवर्तनों के तीसरी शताब्दी के अंत तक होने की संभावना प्रतीत होती है, यही मूल रूप से चंद्रगुप्त मौर्य के मंत्री की कृति थी।
राजा शासन के विभिन्न अंगों का प्रधान था। शासन के कार्यों में वह अथक रूप से व्यस्त रहता था। अर्थशास्त्र में राजा की दैनिक चर्या का आदर्श कालविभाजन दिया गया है। मेगेस्थनीज के अनुसार राजा दिन में नहीं सोता वरन्‌ दिनभर न्याय और शासन के अन्य कार्यों के लिये दरबार में ही रहता है, मालिश कराते समय भी इन कार्यों में व्यवधान नहीं होता, केशप्रसाधन के समय वह दूतों से मिलता है। स्मृतियों की परंपरा के विरुद्ध अर्थशास्त्र में राजाज्ञा को धर्म, व्यवहार और चरित्र से अधिक महत्व दिया गया है। मेगेस्थनीज और कौटिल्य दोनों से ही ज्ञात होता है कि राजा के प्राणों की रक्षा के लिये समुचित व्यवस्था थी। राजा के शरीर की रक्षा अस्त्रधारी स्त्रियाँ करती थीं। मेगेस्थनीज का कथन है कि राजा को निरंतर प्राणभ्य लगा रहता है जिससे हर रात वह अपना शयनकक्ष बदलता है। राजा केवल युद्धयात्रा, यज्ञानुष्ठान, न्याय और आखेट के लिये ही अपने प्रासाद से बाहर आता था। आखेट के समय राजा का मार्ग रस्सियों से घिरा होता था जिनकों लाँघने पर प्राणदंड मिलता था।
अर्थशास्त्र में राजा की सहायता के लिये मंत्रिपरिषद् की व्यवस्था है। कौटिल्य के अनुसार राजा को बहुमत मानना चाहिए और आवश्यक प्रश्नों पर अनुपस्थित मंत्रियों का विचार जानने का उपाय करना चाहिए। मंत्रिपरिषद् की मंत्रणा को गुप्त रखते का विशेष ध्यान रखा जाता था। मेगेस्थनीज ने दो प्रकार के अधिकारियों का उल्लेख किया है - मंत्री और सचिव। इनकी सख्या अधिक नहीं थी किंतु ये बड़े महत्वपूर्ण थे और राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त होते थे। अर्थशास्त्र में शासन के अधिकारियों के रूप में 18 तीर्थों का उल्लेख है। शासन के विभिन्न कार्यों के लिये पृथक्‌ विभाग थे, जैसे कोष, आकर, लक्षण, लवण, सुवर्ण, कोष्ठागार, पण्य, कुप्य, आयुधागार, पौतव, मान, शुल्क, सूत्र, सीता, सुरा, सून, मुद्रा, विवीत, द्यूत, वंधनागार, गौ, नौ, पत्तन, गणिका, सेना, संस्था, देवता आदि, जो अपने अपने अध्यक्षों के अधीन थे।
मेगस्थनीज के अनुसार राजा की सेवा में गुप्तचरों की एक बड़ी सेना होती थी। ये अन्य कर्मचारियों पर कड़ी दृष्टि रखते थे और राजा को प्रत्येक बात की सूचना देते थे। अर्थशास्त्र में भी चरों की नियुक्ति और उनके कार्यों को विशेष महत्व दिया गया है।
मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के नगरशासन का वर्णन किया है जो संभवत: किसी न किसी रूप में अन्य नगरों में भी प्रचलित रही होगी। (देखिए 'पाटलिपुत्र') अर्थशास्त्र में नगर का शसक नागरिक कहलाता है औरउसके अधीन स्थानिक और गोप होते थे।
शासन की इकाई ग्राम थे जिनका शासन ग्रामिक ग्रामवृद्धों की सहायता से करता था। ग्रामिक के ऊपर क्रमश: गोप और स्थानिक होते थे।
अर्थशास्त्र में दो प्रकार की न्यायसभाओं का उल्लेख है और उनकी कार्यविधि तथा अधिकारक्षेत्र का विस्तृत विवरण है। साधारण प्रकार धर्मस्थीय को दीवानी और कंटकशोधन को फौजदारी की अदालत कह सकते हैं। दंडविधान कठोर था। शिल्पियों का अंगभंग करने और जानबूझकर विक्रय पर राजकर न देने पर प्राणदंड का विधान था। विश्वासघात और व्यभिचार के लिये अंगच्छेद का दंड था।
मेगस्थनीज ने राजा को भूमि का स्वामी कहा है। भूमि के स्वामी कृषक थे। राज्य की जो आय अपनी निजी भूमि से होती थी उसे सीता और शेष से प्राप्त भूमिकर को भाग कहते थे। इसके अतिरिक्त सीमाओं पर चुंगी, तटकर, विक्रयकर, तोल और माप के साधनों पर कर, द्यूतकर, वेश्याओं, उद्योगों और शिल्पों पर कर, दंड तथा आकर और वन से भी राज्य को आय थी।
अर्थशास्त्र का आदर्श है कि प्रजा के सुख और भलाई में ही राजा का सुख और भलाई है। अर्थशास्त्र में राजा के द्वारा अनेक प्रकार के जनहित कार्यों का निर्देश है जैसे बेकारों के लिये काम की व्यवस्था करना, विधवाओं और अनाथों के पालन का प्रबंध करना, मजदूरी और मूल्य पर नियंत्रण रखना। मेगस्थनीज ऐसे अधिकारियों का उल्लेख करता है जो भूमि को नापते थे और, सभी को सिंचाई के लिये नहरों के पानी का उचित भाग मिले, इसलिये नहरों को प्रणालियों का निरीक्षण करते थे। सिंचाई की व्यवस्था के लिये चंद्रगुप्त ने विशेष प्रयत्न किया, इस बात का समर्थन रुद्रदामन्‌ के जूनागढ़ के अभिलेख से होता है। इस लेख में चंद्रगुप्त के द्वारा सौराष्ट्र में एक पहाड़ी नदी के जल को रोककर सुदर्शन झील के निर्माण का उल्लेख है।
मेगस्थनीज ने चंद्रगुप्त के सैन्यसंगठन का भी विस्तार के साथ वर्णन किया है। चंद्रगुप्त की विशाल सेना में छ: लाख से भी अधिक सैनिक थे। सेना का प्रबंध युद्धपरिषद् करती थी जिसमें पाँच पाँच सदस्यों की छ: समितियाँ थीं। इनमें से पाँच समितियाँ क्रमश: नौ, पदाति, अश्व, रथ और गज सेना के लिये थीं। एक समिति सेना के यातायात और आवश्यक युद्धसामग्री के विभाग का प्रबंध देखती थी। मेगेस्थनीज के अनुसार समाज में कृषकों के बाद सबसे अधिक संख्या सैनिकों की ही थी। सैनिकों को वेतन के अतिरिक्त राज्य से अस्त्रशस्त्र और दूसरी सामग्री मिलती थीं। उनका जीवन संपन्न और सुखी था।
चंद्रगुप्त मौर्य की शासनव्यवस्था की विशेषता सुसंगठित नौकरशाही थी जो राज्य में विभिन्न प्रकार के आँकड़ों को शासन की सुविधा के लिये एकत्र करती थी। केंद्र का शासन के विभिन्न विभागों और राज्य के विभिन्न प्रदेशों पर गहरा नियंत्रण था। आर्थिक और सामाजिक जीवन की विभिन्न दिशाओं में राज्य के इतने गहन और कठोर नियंत्रण की प्राचीन भारतीय इतिहास के किसी अन्य काल में हमें कोई सूचना नहीं मिलती। ऐसी व्यवस्था की उत्पत्ति का हमें पूर्ण ज्ञान नहीं है। कुछ विद्वान्‌ हेलेनिस्टिक राज्यों के माध्यम से शाखामनी ईरान का प्रभाव देखते हैं। इस व्यवस्था के निर्माण में कौटिल्य ओर चंद्रगुप्त की मौलिकता को भी उचित महत्व मिलना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि यह व्यवस्था नितांत नवीन नहीं थी। संभवत: पूर्ववर्ती मगध के शासकों, विशेष रूप से नंदवंशीय नरेशों ने इस व्यवस्था की नींव किसी रूप में डाली थी।
सन्दर्भ ग्रन्थ[संपादित करें]
  • राधा कुमुद मुकर्जी : चंद्रगुप्तमौर्य ऐंड हिज टाइम्स;
  • सत्यकेतु विद्यालंकार : मौर्य साम्राज्य का इतिहास;
  • मैक्रिंडिल : एंश्येंट इंडिया ऐज़ डिस्क्राइब्ड बाइ मेगस्थनीज़ ऐंड एरिअन;
  • कौटिल्य का अर्थशास्त्र
  • हेमचंद्र रायचौधुरी : पोलिटिकल हिस्ट्री ऑव ऐशेंट इंडिया, पृ. 264-295, (षष्ठ संस्करण) कलकत्ता, 1953;
  • दि एज ऑव इम्पीरीयल यूनिटी (र.च. मजूमदार एवं अ.द. पुसालकर संपादित) पृ. 5469, बंबई, 1960;
  • एज ऑव नंदाज ऐंड दि मौर्याज (के.ए. नीलकंठ शास्त्री संपादित), पृ. 132-165, बनारस, 1952;
  • द केंब्रिज हिस्ट्री ऑव इंडिया (ई.आर. रैप्सन संपादित), भाग 1, पृ. 467-473, कैंब्रिज, 1922
  • उत्तरविहारट्टकथा थेरमहिंद
  • (महापरिनिब्बानसुत्त)

 Chandragupta Maurya FROM  some other books
 

चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास – Chandragupta Maurya History in Hindi

चन्द्रगुप्त मौर्य मौर्य साम्राज्य के संस्थापक थे और वे पुरे भारत को एक साम्राज्य के अधीन लाने में सफल रहे। चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की तिथि साधारणतः 324 ईसा पूर्व की मानी जाती है, उन्होंने लगभग 24 सालो तक शासन किया और इस प्रकार उनके शासन का अंत प्रायः 297 ईसा पूर्व में हुआ। बाद में 297 में उनके पुत्र बिन्दुसार ने उनके साम्राज्य को संभाला। मौर्य साम्राज्य को इतिहास के सबसे सशक्त सम्राज्यो में से एक माना जाता है। अपने साम्राज्य के अंत में चन्द्रगुप्त को तमिलनाडु (चेरा, प्रारंभिक चोला और पंड्यां साम्राज्य) और वर्तमान ओडिसा (कलिंग) को छोड़कर सभी भारतीय उपमहाद्वीपो पर शासन करने में सफलता भी मिली। उनका साम्राज्य पूर्व में बंगाल से अफगानिस्तान और बलोचिस्तान तक और पश्चिम के पकिस्तान से हिमालय और कश्मीर के उत्तरी भाग में फैला हुआ था। और साथ ही दक्षिण में प्लैटॉ तक विस्तृत था। भारतीय इतिहास में चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल को सबसे विशाल शासन माना जाता है।

ग्रीक और लैटिन खातो के अनुसार चन्द्रगुप्त सैंड्रोकोटॉ (Sandrocottos) और अन्ड्रोकोटॉ (Androcottos) के नाम से भी जाने जाते है। चन्द्रगुप्त ने अलेक्ज़ेण्डर द ग्रेट के युनानी सुदूर पूर्वी शासन काल को भी निर्मित किया और अलेक्ज़ेण्डर के सबसे शक्तिशाली शासक सेलुकस प्रथम निकटोर को युद्ध में पराजीत किया। और परिणामस्वरूप गठबंधन के इरादे से चंदगुप्त ने सेलुकस की बेटी से मित्रता की भावना से विवाह कर लिया ताकि वे सशक्त साम्राज्य का निर्माण कर सके और युनानी साम्राज्य से अपनी मित्रता को आगे बढा सके। इसके चलते भारत का पश्चिमी देशो से सम्बन्ध निर्मित होता गया और आसानी से भारतीय पश्चिमी देशो से व्यापार भी करने लगे। बाद में ग्रीक राजनीतिज्ञ मेगस्टेन्स ने मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र को भेट दी, जो उस समय मौर्य साम्राज्य का मुख्य अंग था।
ज्यादातर भारत को एक करने के बाद चन्द्रगुप्त और उनके मुख्य सलाहकार चाणक्य ने आर्थिक और सामाजिक बदलाव किये। उन्होंने भारत की आर्थिक और राजनैतिक स्थिति में भी सुधार किये। और चाणक्य के अर्थशास्त्र को ध्यान में रखते हुए राजनैतिक सुधार करने हेतु केंद्रीय प्रशासन की स्थापना की गयी। चन्द्रगुप्त कालीन भारत को प्रभावशाली और नौकरशाही की प्रणाली अपनाने वाले भारत के रूप में जाना जाता है जिसमे सिविल सेवाओं पर ज्यादा से ज्यादा जोर दिया गया था। चन्द्रगुप्त के साम्राज्य में एकता होने की वजह से ही उनकी आर्थिक स्थिति सबसे मजबूत मानी जाने लगी थी। और विदेशो में व्यापार होने के साथ ही देश का आंतरिक और बाहरी विकास भी होने लगा था।
कला और शिल्पकला दोनों के ही विकास में मौर्य साम्राज्य का बहोत बडा योगदान रहा है। अपनी प्राचीन संस्कृति को आगे बढाने की सिख कुनबे अकियाई साम्राज्य और युनानी साम्राज्य से ही मिली। चन्द्रगुप्त के शासनकाल में धार्मिक गुरुओं को भी काफी महत्त्व दिया गया था। उनके साम्राज्य में बुद्ध और जैन समाज का तेज़ी से विकास हो रहा था। जैन खातो के अनुसार चन्द्रगुप्त ने अपने सिंहासन को स्वैच्छा से छोड़ा था क्यू की ऐसा कहा जाता है की उनके पुत्र बिन्दुसार ने जैन धर्म का आलिंगन कर लिया था और उनका पुत्र दक्षिणी साधु भद्राभाऊ का अनुयाई बन गया था। कहा जाता है की श्रवणबेलगोला (अभी का कर्नाटक) में अपनी इच्छा नुसार ही भुखमरी से ही उनकी मृत्यु हुई थी।

चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारंभिक जीवन कहानी – Chandragupta Maurya Ki Kahani in Hindi


चन्द्रगुप्त के युवा जीवन और वंशज के बारे में बहोत कम जानकारी उपलब्ध है। उनके जीवन के बारे में जो भी जानकारी उपलब्ध है वो सारी जानकारी संस्कृत साहित्य और ग्रीक और लैटिन भाषाओं में से जो चन्द्रगुप्त के ही अँड्रॉटोस और सैंड्रोकोटॉ नाम पर है में से ली गयी है। बहोत से पारंपरिक भारतीय साहित्यकारों ने मौर्य का सम्बन्ध नंदा राजवंश से भी बताया है जो की आधुनिक भारत में बिहार के नाम से भी जाना जाता है।
बाद में हज़ारो साल बाद एक संस्कृत नाटक मुद्राराक्षस में उन्हें “नंदनवय” मतलब नंद के वंशज भी कहा गया था। चन्द्रगुप्त का जन्म उनके पिता के छोड़ चले जाने के बाद एक बदहाल परिवार में हुआ था, कहा जाता है की उनके पिता मौर्य की सरहदों के मुख्य प्रवासी थे। चन्द्रगुप्त की जाती के बारे में यदि बात की जाये तो मुद्राराक्षस में उन्हें कुल-हीन और वृषाला भी कहा गया है। भारतेंदु हरीशचंद्र के अनुवाद के अनुसार उनके पिता नंद के राजा महानंदा और उनकी माता मोरा थी, इसी वजह से उनका उपनाम मौर्य पड़ा। जस्टिन ने यह दावा किया था की चन्द्रगुप्त एक नम्र प्रवृत्ति के शासक थे। वही दूसरी ओर नंद को प्रथित-कुल मतलब प्रसिद्ध और खानदानी कहा गया है। वही बुद्धिस्ट महावंशो ने चन्द्रगुप्त को मोरिया का वंशज (क्षत्रिय) बताया है।
महावंशटिका ने उन्हें बुद्धा के शाक्य वंश से जोड़े रखा, ऐसे वंशज से जिनका सम्बन्ध आदित्य से भी था।
बुद्धिस्ट परम्पराओ में चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय समुदाय के ही सदस्य थे और उनके बेटे बिन्दुसार और बड़े बेटे प्रचलित बुद्धिस्ट अशोका भी क्षत्रिय वंशज ही माने जाते है। संभवतः हो सकता है की साक्य रेखा से उनका सम्बन्ध स्थापित हुआ हो। (क्षत्रिय की साक्य रेखा को गौतम बुद्धा का वंशज माना जाता है और अशोका मौर्य ने अपने अभिलेख में खुद को बुद्धि साक्य बताया था।) मध्यकालीन अभिलेख में मौर्य का सम्बन्ध क्षत्रिय के सूर्य वंश से बताया गया है।
अपनी जन्मभूमि छोड़कर चली आने वाली मोरिय जाति का मुखिया चंद्रगुप्त के पिता था। दुर्भाग्यवश वह सीमांत पर एक झगड़े में मारे गये और उनका परिवार अनाथ रह गया। उसकी अबला विधवा अपने भाइयों के साथ भागकर पुष्यपुर (कुसुमपुर पाटलिपुत्र) नामक नगर में पहुँची, जहाँ उसने चंद्रगुप्त को जन्म दिया। सुरक्षा के विचार से इस अनाथ बालक को उसके मामाओं ने एक गोशाला में छोड़ दिया, जहाँ एक गड़रिए ने अपने पुत्र की तरह उसका पालन-पोषण किया और जब वह बड़ा हुआ तो उसे एक शिकारी के हाथ बेच दिया, जिसने उसे गाय-भैंस चराने के काम पर लगा दिया। कहा जाता है कि एकसाधारण ग्रामीण बालक चंद्रगुप्त ने राजकीलम नामक एक खेल का आविष्कार करके जन्मजात नेता होने का परिचय दिया। इस खेल में वह राजा बनता था और अपने साथियों को अपना अनुचर बनाता था। वह राजसभा भी आयोजित करता था जिसमें बैठकर वह न्याय करता था। गाँव के बच्चों की एक ऐसी ही राज सभा में चाणक्य ने पहली बार चंद्रगुप्त को देखा था।
बौद्ध रचनाओं में कहा गया है कि ‘नंदिन’ के कुल का कोई पता नहीं चलता (अनात कुल) और चंद्रगुप्त को असंदिग्ध रूप से अभिजात कुल का बताया गया है।
चन्द्रगुप्त मौर्य भारत के ऐसे प्रथम शासक थे, जिन्होंने न केवल यूनानी, बल्कि विदेशी आक्रमणों को पूर्णत: विफल किया तथा भारत के एक बड़े भू-भाग को सिकन्दर जैसे महत्त्वाकांक्षी यूनानी आक्रांता के आधिपत्य से मुक्त कराया। विस्तृत शासन व्यवस्था के होते हुए भी उन्होंने भारत को राजनीतिक एकता प्रदान की। उनकी प्रशासनिक व्यवस्था इतनी सुदृढ़, सुसंगठित थी कि अंग्रेजों ने भी इसे अपना आदर्श माना।
चन्द्रगुप्त मौर्य एक निडर योद्धा थे। उन्हें चन्द्रगुप्त महान के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने भारत का अधिकतर भाग अपने मौर्य साम्राज्य में शामिल कर लिया था। वे हमेशा से ही भारत में एकता लाना चाहते थे और आर्थिक रूप से भारत का विकास करना चाहते थे। मौर्य कालीन भारत आज भी एक विकसित भारत के रूप में याद किया जाता है।
भारतीय इतिहास के इस महान शासक को कोटि-कोटि नमन।


Mr.Jagannath Sahoo
Educational & Inspirational
Blog: http://jsahoo.blogspot.in/
E­mail Id: jsorg10171 @gmail.com

 

 Samrat  Chandragupta Maurya  Life History in Hindi has many versions by different
historians. So, the information furnished here may not be 100% accurate.

 

For contact us: Mr.Jagannath Sahoo.

JS ORGANIZATION


Mob/ whatsApp: 7077208953

Monday, 13 March 2017

Samrat Ashoka Life History in Hindi

               चक्रवर्ती सम्राट अशोक Samrat Ashoka
                       Life History in Hindi
                                    ( A research by: JS ORG.)



                        चक्रवर्ती सम्राट अशोक
                 
 सम्राट अशोक का गौरवपूर्ण इतिहास

Samrat Ashoka Life History in Hindi

Ashoka The Great

             
                       (Magadha empire)
आदर्शवादी तथा बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न, मानव सभ्यता का अग्रदूत तथा प्राचीन भारतीय इतिहास का दैदिप्त्यमान सितारा अशोक एक महान सम्राट था। सभी इतिहासकारों की दृष्टी से अशोक का शासनकाल स्वर्णिम काल कहलाता है।

अशोक बिंदुसार का पुत्र था , बौद्ध ग्रन्थ दीपवंश में बिन्दुसार की 16 पत्नियों एवं 101 पुत्रों का जिक्र है। अशोक की माता का नाम शुभदाग्री था। बिंदुसार ने अपने सभी पुत्रों को बेहतरीन शिक्षा देने की व्यवस्था की थी। लेकिन उन सबमें अशोक सबसे श्रेष्ठ और बुद्धिमान था। प्रशासनिक शिक्षा के लिये बिंदुसार ने अशोक को उज्जैन का सुबेदार नियुक्त किया था। अशोक बचपन से अत्यन्त मेघावी था। अशोक की गणना विश्व के महानतम् शासकों में की जाती है।

सुशीम बिंदुसार का सबसे बड़ा पुत्र था लेकिन बिंदुसार के शासनकाल में ही तक्षशीला में हुए विद्रोह को दबाने में वह अक्षम रहा। बिंदुसार ने अशोक को तक्षशीला भेजा। अशोक वहाँ शांति स्थापित करने में सफल रहा। अशोक अपने पिता के शासनकाल में ही प्रशासनिक कार्यों में सफल हो गया था। जब 273 ई.पू. में बिंदुसार बीमार हुआ तब अशोक उज्जैन का सुबेदार था। पिता की बिमारी की खब़र सुनते ही वह पाटलीपुत्र के लिये रवाना हुआ लेकिन रास्ते में ही अशोक को पिता बिंदुसार के मृत्यु की ख़बर मिली। पाटलीपुत्र पहुँचकर उसे उन लोगों का सामना करना पड़ा जो उसे पसंद नही करते थे। युवराज न होने के कारण अशोक उत्तराधिकार से भी बहुत दूर था। लेकिन अशोक की योग्यता इस बात का संकेत करती थी कि अशोक ही बेहतर उत्तराधिकारी था। बहुत से लोग अशोक के पक्ष में भी थे। अतः उनकी मदद से एंव चार साल के कड़े संघर्ष के बाद 269 ई.पू. में अशोक का औपचारिक रूप से राज्यभिषेक हुआ।

अशोक ने प्रशाश्कीय क्षेत्र में जिस त्याग, दानशीलता तथा उदारता का परिचय दिया एवं मानव को नैतिक स्तर उठाने की प्रेरणा दी वो विश्व इतिहास में कहीं और देखने को नही मिलती है। अशोक ने शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिये अनेक सुधार किये और अनेक धर्म-महापात्रों की नियुक्ति की। अशोक अपनी जनता को अपनी संतान की तरह मानता था। उसने जनहित के लिये प्रांतीय राजुकों को नियुक्त किया। अशोक के छठे लेख से ये स्पष्ट हो जाता है कि वो कुशल प्रशासक था। उसका संदेश था –

प्रत्येक समय मैं चाहे भोजन कर रहा हूँ या शयनागार में हूँ, प्रतिवेदक प्रजा की स्थिति से मुझे अवगत करें। मैं सर्वत्र कार्य करूंगा प्रजा हित मेरा कर्तव्य है और इसका मूल उद्योग तथा कार्य तत्परता है।

अशोक की योग्यता का ही परिणाम था कि उसने 40 वर्षों तक कुशलता से शासन किया, यही वजह है कि सदियों बाद; आज भी लोग अशोक को एक अच्छे शाशक के रूप में याद करते हैं।
                 

अशोक युद्ध के लिये इतना प्रसिद्ध नही हुआ जितना एक धम्म विजेता के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वह न केवल मानव वरन सम्पूर्ण प्राणी जगत के प्रति उदारता का दृष्टीकोण रखता था। इसी कारण उसने पशु पक्षियों के वध पर प्रतिबंध लगा दिया था। अशोक ने लोकहित के लिये छायादार वृक्ष, धर्मशालाएं बनवाई तथा कुएं भी खुदवाये। उसने मनुष्यों व पशुओं के लिये उपयोगी औषधियों एवं औषधालयों की व्यवस्था की थी।

               

अपने साम्राज्य की सीमाओं की सुरक्षा तथा दक्षिण भारत से व्यापार की इच्छा हेतु अशोक ने 261 ई.पू. में कलिंग पर आक्रमण किया। युद्ध बहुत भीषण हुआ। इस युद्ध में अशोक को विजय हासिल हुई। जिसका विवरण अशोक के तेरहवें शिलालेख में अंकित है। विजयी होने के बावजूद अशोक इस जीत से खुश नही हुआ क्योंकि इस युद्ध में नरसंहार का ऐसा तांडव हुआ जिसे देखकर अशोक का मन द्रविभूत हो गया। युद्ध की भीषणता का दिलो-दिमाग पर ऐसा असर हुआ कि अशोक ने युद्ध की नीति का सदैव के लिये त्याग कर दिया। उसने दिग्विजय की जगह धम्म विजय को अपनाया। उसने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि कलिंग की जनता के साथ पुत्रवत् व्यवहार किया जाये तथा सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार हो। उसने अपने आदेश को शिलालेख पर लिखवाया। ये आदेश धौली व जोगदा शिलालेखों पर अंकित है। कलिंग के युद्ध के बाद सम्राट अशोक के व्यवहार में अद्भुत परिवर्तन हुआ और कलिंग युद्ध उसका अंतिम सैन्य अभियान था। अशोक की इस शान्ति प्रिय निती ने उसे अमर बना दिया।
         

अशोक ने अपने शासन काल में बंदियों की स्थिति में भी सुधार किये। उसने वर्ष में एक बार कैदियों को मुक्त करने की प्रथा का प्रारंभ किया था। अशोक ने राज्य का स्थाई रूप से दौरा करने के लिये व्युष्ट नामक अधिकारी नियुक्त किये थे। कलिंग विजय के पश्चात अशोक का साम्राज्य विस्तार बंगाल की खाड़ी तक हो गया था। नेपाल तथा कश्मीर भी मगध राज्य में थे। दक्षिण में पन्नार नदी तक साम्राज्य विस्तृत था। उत्तर पश्चिम में अफगानिस्तान व बलूचिस्तान भी अशोक के साम्राज्य का हिस्सा था।

अशोक ने धम्म सम्बन्धी अपने सिद्धान्त को अपने अभिलेखों में अभिव्यक्त किया है।

प्रथम शिलालेख मे लिखा है- “यज्ञ अथवा भोजन के लिये पशुओं की हत्या न करना ही उचित है।” इसी के साथ अशोक ने माता-पिता, गुरु एवं बड़े बुजुर्गों का आदर सत्कार का संदेश भी शिलालेख पर अंकित करवाया। अशोक के धम्म प्रचार का मुख्य उद्देश्य समाज में शांति और सोहार्द की वृद्धी करना था।

उसने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संधमित्रा को श्री लंका में बौद्ध प्रचार के लिये भेजा अशोक द्वारा लिखवाये गये अधिकांश शिला-अभिलेख धम्म प्रचार के साधन थे।
अशोक के अधिकांश संदेश ब्रह्मी लिपि में हैं। कुछ अभिलेखों में खरोष्ठी तथा आरमेइक लिपि का भी प्रयोग हुआ है। सर्व प्रथम 1837 में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने इसे पढने में सफलता हासिल की थी।

अशोक द्वारा लिखवाये अभिलेखों को चार भागों में विभाजित किया गया है, चौदह -शिलालेख, लघु-शिलालेख, स्तम्भ-शिलालेख तथा लघु-स्तम्भ शिलालेख। अशोक ने अपने शासनकाल में अनेक स्तंभ बनवाये थे उसमें से आज लगभग 19 ही प्राप्त हो सकें हैं। इनमें से हमारी संस्कृति की धरोहर अशोक स्तंभ को राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में अंगीकार किया गया है। स्तंभ में स्थित चार शेर शक्ति, शौर्य, गर्व और आत्वविश्वास के प्रतीक हैं। अशोक स्तंभ के ही निचले भाग में बना अशोक चक्र आज राष्ट्रीय ध्वज की शान बढ़ा रहा है।

अशोक में कर्तव्यनिष्ठा का प्रबल भाव था। उसने घोषणां की थी कि,

 मैं जो कुछ भी पराक्रम करता हूँ, वह उस ऋण को चुकाने के लिये है, जो सभी प्राणियों का मुझपर है।

सम्राट अशोक की मृत्यु की तिथी एवं कारण को लेकर अनेक भ्रान्तियां हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार अशोक की मृत्यु 232 ई.पू. में हुई थी।

इतिहासकार डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने लिखा है कि, “राजाओं के इतिहास में अशोक की तुलना किसी अन्य राजा से नही कि जा सकती है।”

इतिहासकारों के अनुसार, अशोक चन्द्रगुप्त के समान प्रबल, समुन्द्र गुप्त के समान प्रतिभासम्पन्न तथा अकबर के समान निष्पक्ष था। चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा भारत को एक राजनैतिक सूत्र में बाँधने के प्रयत्न को अशोक ने पूर्ण किया था। निःसंदेह अशोक एक महान शासक था। उसका आदर्श विश्व की महत्वपूर्ण आध्यात्मिक पूंजी है।

———–

सम्राट अशोक के बारे में कुछ रोचक तथ्य / Interesting Facts about Samrat Ashoka in Hindi

अशोक का पूरा नाम “अशोक वर्धन मौर्या” था। अशोक का अर्थ है – बिना शोक का यानि जिसे कोई दुःख न हो कोई पीड़ा न हो ।अशोक ने बाद में देवनंपिय पियदसी (Devanampiya Piyadasi) यानि “देवताओं का प्रिय और प्रेम से देखने वाला” की पदवी ले ली।अपने भाइयों की हत्या, जिसमे सबसे बड़े भाई और बिन्दुसार के उत्तराधिकारी सुशीम की हत्या भी शामिल थी; के कारण अशोक का एक नाम चंड अशोक (Chanda Ashoka) भी पड़ा। जिसका अर्थ है बेरहम या निर्मम अशोक।माना जाता है कि अशोक ने अपने सभी भाईयों की हत्या नहीं की और बहुत से भाइयों को जिसमे तिष्य नाम का एक छोटा भाई भी शामिल था, उन्हें मगध साम्राज्य के कई प्रान्तों का बागडोर सँभालने को दे दी।18 साल की उम्र में अशोक को उज्जैन के एक प्रान्त अवंती का वायसराय नियुक्त कर दिया गया था।अशोक की पहली पत्नी देवी एक बौद्ध व्यापारी की पुत्री थी। जिससे अशोक को पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा प्राप्त हुए। देवी कभी भी राजधानी पाटलिपुत्र नहीं गयी।महेद्र और संघमित्रा को श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए उत्तरदायी माना जाता है।तक्षशिला का विद्रोह दबाने के बाद अशोक की अगला राजा बनने की सम्भावना बढ़ गयी, जिससे परेशान होकर बड़े भाई सुशीम ने राजा बिन्दुसार द्वारा उसे दो साल के देश निकाला दिला दिया।इस दौरान अशोल एक मछुआरे की पुत्री करूणावकि से मिला और उससे विवाह कर लिया। इस विवाह से उसे तिवाला नाम का पुत्र हुआ। शिलालेखों में बस इसी रानी का नाम मिलता है।अशोक की प्रधान रानी का नाम असंध्मित्रा था जो एक राज-परिवार से थी और अपना पूरा जीवन प्रमुख रानी बन कर रही। हालांकि, इस रानी से अशोक को कोई संतान नहीं थी।चक्रवर्ती सम्राट अशोक का शासन 40 वर्ष का था, जबकि उसके पिता का शाशन 25 वर्ष का और मौर्य वंश के पहले सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का शाशन काल 24 वर्ष का था।कलिंग के युद्ध में 1 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु ने अशोक को झकझोर दिया और तभी से वह शांति की तलाश में लग गया और धीरे-धीरे बौद्ध धर्म अपना लिया।माना जाता है कि बौद्ध धर्म अपनाने से पहले अशोक भगवान् शिव का उपासक था।अशोक का मानना था कि बौद्ध धर्म सिर्फ इंसानों के लिए ही नहीं बल्कि जानवरों और पेड़-पौधों के लिए भी हितकारी है और उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने धर्म प्रचारक श्रीलंका, नेपाल, सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान, यूनान तथा  मिस्र  तक भेजे।अशोक का साम्राज्य पुरे भारतीय उप महाद्वीप में फैला हुआ था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था जो उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफ़गानिस्तान तक पहुँच गया था।अशोक के शासन काल में ही कई प्रमुख विश्वविद्यालयों की स्थापना की गयी, जिसमे तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय प्रमुख हैं।तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक द्वारा बनाया गया मध्य प्रदेश में साँची का स्तूप आज भी एक प्रसिद्द पर्यटक स्थल है।अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य लगभग ५० और वर्षों तक चला। इसके आखिरी शासक का नाम ब्रह्द्रत था जिसे 185 BCE में उसके जनरल पुष्यमित्र संगा ने मार डाला था।अशोक स्तम्भ से लिए गए अशोक चक्र को भारत के राष्ट्रीय ध्वज में स्थान दिया गया है तथा चार शेरों वाले चिन्ह को राष्ट्रिय चिन्ह (national emblem) का सम्मान दिया गया है।
       

सम्राट अशोक के अनमोल विचार

धन्यवाद

Mr.Jagannath Sahoo

Educational & Inspirational
Blog:  http://jsahoo.blogspot.in/
E-mail Id:  jsorg10171@gmail.com

Note: अलग-अलग इतिहासकारों ने सम्राट अशोक से सम्बंधित अलग-लग विवरण दिए हैं। अतः संभव है कि इस लेख में बताई गयी सभी बातें पूर्णत सही न हों। Samrat Ashok Life History in Hindi has many versions by different historians. So, the information furnished here may not be 100% accurate.


For contact us: Mr.Jagannath Sahoo.
                             JS ORGANIZATION
                            Mob/ whatsApp: 7077208953